बुधवार, 24 दिसंबर 2008

मुझे इतनी उँचाई कभी मत देना

धरती को बौनों की नहीं,
उँचे कद के इन्सानों की जरूरत है,
किंतु इतने उँचे भी नहीं,
कि पांव तले दूब ही न जमें,
कोई कांटा न चुभे, कोई कली न खिले,
न बसंत हो न पतझड़,हो सिर्फ उँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा,
मेरे प्रभु,मुझे इतनी उँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले लगा ना सकूं,
इतनी रूखाई कभी मत देना,
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चोटी से गिरने से अधिक चोट लगती है,
अस्थि जुड़ जाती है पीडा़ मन को सुलगाती है,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि,
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही ना मानें,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि,
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठाने॥,
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